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1 year ago
Ambedkar’s Social Thoughts PDF Free Download, अम्बेडकर के सामाजिक विचार PDF Free Download. डॉ भीमराव अंबेडकर के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों पर प्रकाश डालिए.
राज्य का वास्तविक और प्रत्यक्ष रूप सरकार है। सरकार अपना कार्य सुचारू रूप से तभी कर सकती है जब कि प्रजा उसके आदेशों को माने प्रजा द्वारा सरकार के आदशों का पालन स्वैच्छिक होना चाहिए। अम्बेडकर सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों के पक्ष मे नही थे वह उन्हें अराजकता का पर्याय मानते थे। यदि शासन अन्याय और अत्याचार की राह पर चले तो अम्बेडकर नागरिकों को उसका विरोध करने की सलाह देते हैं ।
अम्बेडकर ने राज्य के निम्नलिखित कर्तव्य निर्धारित किए हैं–
1. जीवन स्वतंत्रता, सुख प्राप्ति, भाषण स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करना।
2. समाज के दलित वर्गों को अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं देकर सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक असमानता को दूर करना।
3. नागरिकों को अभावों और भय से मुक्ति देना।
अम्बेडकर के राजनीतिक चिंतन में स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए गुंजाइश है जो नागरिकों की अनेक आवश्यकताओं को पूरी करते हैं। इन संस्थाओं के बिना नागरिकों का उचित रीति से विकास नहीं हो सकता।
अम्बेडकर के विचारों में उदारवाद एवं समाजवाद दोनों के दर्शन होते हैं। यही कारण है कि अम्बेडकर एक ऐसा राज्य चाहते हैं जो व्यक्ति के स्वतंत्रता एवं गरिमा का सम्मान करते हुए लोककल्याण के मार्ग को प्रशस्त करे। समाजवादी विचारों से व्यक्ति को साध्य मानते हैं, इसलिए वे व्यक्ति की स्वतंत्रता को संकट में डालकर लोककल्याण नही चाहते हैं। वे कुल मिलाकर उदारवादियों की तरह राज्य के सकारात्मक भूमिका को स्वीकारते हैं किंतु व्यक्ति स्वातन्न्य का क्षरण न हो। लोक कल्याणकारी राज्य में ही सर्वांगीण विकास एवं समस्त नागरिकों की प्रगति संभव है।
अम्बेडकर चाहते थे कि राज्य का संचालन नियंत्रण एवं संतुलन सिद्धान्त पर आधारित संसदीय प्रणाली के माध्यम से हो। ताकि शासन के तीन अंग संयमित एवं मर्यादित रहें। वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर बहुमत के अतिक्रमण होने की संभावना के प्रति सचेत करते थे। अम्बेडकर मिल की भाँति स्वतंत्रता के परम उपासक थे। इसलिए वे एक उत्तरदायी शासन व्यवस्था की स्थापना हेतु वयस्क मताधिकार की वकालत करते थे । वे मताधिकार हेतु आयु के अतिरिक्त किसी अन्य प्रतिबंध के हिमायती न थे।
अम्बेडकर सामाजिक न्याय के पक्षधर होन के कारण प्रजातंत्र में उनका अत्यधिक विश्वास था। वे संपूर्ण जीवन में स्वतंत्रता, समानता बंधुत्व को स्थापित करने हेतु सतत् प्रयत्नशील रहे जो प्रजातंत्र का मूल आधार है। उनका मता था कि प्रजातंत्र केवल सरकार एक रुप मात्र न होकर सामाजिक संगठन का स्वरूप भी है। अतएवं प्रजातंत्र को उच्चता व निम्नता पर बिना विचार किये हुए सभी के कल्याण हेतु कार्य करने चाहिए। वह राजनीतिक प्रजातंत्र के संदर्भ में 4 आधार स्तम्भ की चर्चा करते है–
1. व्यक्ति अपने आप में स्वतः एक साध्य है।
2. व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार हैं जिसे देने का वायद संविधान को करना चाहिए।
3. व्यक्ति को किसी प्रकार का विशिष्ट अधिकार देने की यह शर्त न हो कि उसे संवैधानिक अधिकार छोड़ने पड़ेगे।
4. राज्य किसी व्यक्ति को ऐसा अधिकार नही देगा जिससे वह दूसरों पर शासन करे।
अम्बेडकर चाहते थे कि प्रजातंत्र में स्वतंत्रता एवं समानता के मध्य संतुलन स्थापित रहे। प्रजातंत्र अहिंसात्मक उपायों पर अवलंबित रहे। वे कहते हैं कि ‘प्रजातंत्र शासन’ की एक ऐसी पद्धति है का प्रतिनिधित्व करता है जिसके माध्यम से लोगों के राजनीतिक ही नही, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में भी बिना रक्त रंजित तरीकों को अपनाये आमूल- चूल परिवर्तनों को व्यवहारिक रुप प्रदान किया जा सके।
अम्बेडकर प्रजातंत्र के संसदीय स्वरुप को अत्याधिक पसंद करते थे। वे संसदीय शासन व्यवस्था के निम्नांकित लक्षणों के कारण भारत के लिए उपयोग मानते थे–
1.इसमें शासन का अधिकार वंशानुगत नही होता है।
2. इसमें व्यक्ति विशेष शासन/सत्ता का प्रतीक नही होता है।
3. निर्वाचित प्रतिनिधियों में जनता का विश्वास रहता है।
लेकिन अम्बेडकर पश्चिम देशों जैसे जर्मनी, रूस, स्पेन इत्यादि में संसदीय शासन प्रणाली की विफलता से चिंतित भी थे। वह भारत के लिए चाहते थे इसे स्वीकारने से पूर्व इस बात पर मंथन होना चाहिए कि उक्त देशों में यह किन कारणों से विफल हुआ है। वे कहते थे कि संसदीय लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब समाज में असमानतायें न हो तथा एक सशक्त विपक्ष भी अस्तित्व में हो। वे लोकतंत्र के लिए स्थायी रूप से प्रशासनिक तंत्र एवं संवैधानिक नैतिकता की भी बात करते हैं।
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने भारत में रानजीतिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को पहली शर्त माना हैं। सामाजिक लोकतंत्र के लिये उन्होंने जाति प्रथा और अस्पृश्यता को समाप्त करना जरूरी माना हैं। उनके मतानुसार सफल लोकतंत्र के कार्यकरण के लिए यह जरूरी है कि समाज में गंभीर असमानताएं न हों, कोई दलित वर्ग न हो कोई शोषित वर्ग न हो कोई ऐसा वर्ग न हो, जिसके पास समस्त विशेषाधिकार हों, कोई ऐसा वर्ग न हो जिसके कंधों पर सभी प्रकार के प्रतिबंधों का बोझ हो जब तक समाज में ऐसी स्थितियां विद्यमान हैं तब तक सामाजिक संगठनों में खूनी क्रांति के बीज विद्यमान हैं और संभव: हैं लोकतंत्र के लिए उनका निराकरण करना संभव नहीं है। अम्बेडकर ने दलित और शोषित वर्गों के लिए सांविधानिक और कानूनी संरक्षणों की घोषणा को सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक माना।
उनका मत था था कि इन सांविधानकि संरक्षणों के माध्यम से दलित वर्ग उनसे जुड़ी सामाजिक निर्योग्यताओं से उबर सकेंगे और वे संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का वास्तव में उपयोग कर सकेंगे। उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र के लिए ऐसे सांविधानिक संरक्षणों को भी आवश्यक माना कि बहुमत के आधार पर सत्ता में आने वाला कोई भी दल जन्म पर आधारित भेदभावों तथा अस्पृश्यता आदि के उन्मूलन के कार्यों में शिथिलता न बरत सके तथा दलित वर्गों को उनके न्यायसम्मत अधिकार प्रदान करने के लिए पूर्ण निष्ठा से प्रयत्नशील रहे। उन्होंने दलित वर्गों को राजनीतिक सत्ता व प्रशासन में भागीदारी दिए जाने की तथा इस उद्देश्य से व्यवस्थापिकाओं और सार्वजनिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक माना।
अम्बेडकर का मत था कि एक न्यायनिष्ठ सामाजिक प्रणाली ही लोकतंत्र के आदर्शों को प्रतिबिम्बित कर सकती है। इस उद्देश्य से उन्होंने भारत में सामाजिक संस्थाओं और राजनीतिक संविधान के मध्य तारतम्य स्थापित किया जाना आवश्यक माना। उन्होंने कहा कि समानता स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के मूल्यों पर आधारित एक ऐसी उपयुक्त सामाजिक प्रणाली में ही लोकतंत्र का आदर्श चरितार्थ हो सकता है जिसमें सामाजिक हितों को प्रोत्साहित व संरक्षण देने के लिए समाज की उपलब्ध समस्त क्षमताओं और विवेक का बिना भेदभाव के उपयोग किया जा सके। अम्बेडकर ने भारत में विद्यमान सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं में समन्वय स्थापित करके एक एकताबद्ध सामाजिक प्रणाली की स्थापना के लिए धार्मिक विश्वासों सामाजिक परंपराओं और रीति-रिवाजों आदि में से कट्टरता संकीर्णता और रूढ़िवादिता को समाप्त करने की आवश्यकता अनुभव की तथा सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू किये जाने तथा धार्मिक व भाषायी सहिष्णुता को प्रोत्साहन पर बल दिया।
मार्क्स और डाॅ. भीमराव अम्बेडकर दोनों ही दलितों के उत्थान की बात करते थे। दोनों ने ही एक ऐसे समाज की रचना करना चाही थी जो शोषण से बचा हुआ हो। दोनों ही गरीबों की भलाई के लिए संघर्ष में विश्वास करते थे। परन्तु इन सब के होते हुए भी डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को मार्क्स की बहुत सी बातें पसंद नहीं थी।
वह हिंसा में विश्वास नही करते थे। उन्हें मार्क्स का हिंसक क्रांति का मार्ग पसंद नही था। उनका कहना था कि हिंसा पर आधारित कोई भी राज्य स्थाई एवं टिकाऊ नही हो सकता।
वह वर्ग संघर्ष के विरूद्ध थे। उनका कहना था कि भारत में शोषण का आधार वर्ग न होकर वर्ण रहा हैं। इसीलिए भारत में वर्ग संघर्ष अनावश्यक हैं। भारत से तो यह वर्णभेद समाप्त होना चाहिए। उन्हें भारत के संदर्भ में वर्ग संघर्ष की पूरी मान्यता गलत लगती थी।
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर मार्क्स के राज्य संबंधी विचारों से भी सहमत नहीं थे। वे राज्य को शोषण का माध्यम नहीं मानते थे। वे तो मानते थे कि राज्य के माध्यम से ही सभी न्यायोचित कार्य किए जा सकते हैं और दलितों की स्थिति सुधारी जा सकती हैं। राज्य सामाजिक परिवर्तन के अनेक उपयोगी कार्य कर सकता हैं।
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर मार्क्स की कल्पना ‘सर्वहार वर्ग के अधिनायकवाद’ के भी बहुत आलोचक थे। उनका कहना था कि साम्यवादी राज्य तो अधिनायकवादी राज्य होता हैं। इसमें नागरिकों को मूलभूत स्वतंत्रताओं से वंचित किया जाता हैं।
इसके अलावा अंबेडकर मार्क्स के धर्म संबंधी विचारों से भी सहमत नहीं थे। मार्क्स तो धर्म को अफीम मानता था, जबकि अम्बेडकर के अनुसार धर्म मानव जीवन को निर्मल बनाने का अच्छा मार्ग हैं। डाॅ. भीमराव अम्बेडकर की दृष्टि में बुद्ध का चिंतन मार्क्स के चिंतन की अपेक्षा अधिक अच्छा था। अंबेडकर ने कहा था,” बौद्ध धर्म में कार्ल मार्क्स का संपूर्ण उत्तर हैं। उनके अनुसार दुःख निवारण के लिए बौद्ध धर्म का मार्ग ही सुरक्षित मार्ग हैं। इसी मार्ग पर चलकर मार्क्सवाद से भी बचा जा सकता हैं।”
भारतीय संविधान बाबा साहेब की अमूल्य देन हैं। डाॅ. भीमराव अम्बेडकर का स्थान आधुनिक सामाजिक विचारकों में महत्वपूर्ण हैं।
टी. के. टोप्पे,” अंबेडकर का पांडित्य तथा ज्ञान निस्संदेह उच्च था। संभव है कि आने वाली पीढ़ियां अंबेडकर की राजनीतिक उपलब्धियों को याद न रखें पर ज्ञान के क्षेत्र में उनकी श्रेष्ठ उपलब्धियां कभी विस्तृत नहीं होंगी, राजनेता, सामाजिक, क्रांतिकारी और बौद्ध धर्म के आधुनिक व्याख्याकार के रूप में डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को भूलाया जा सकता हैं, पर एक विद्वान के रूप में वे अमर रहेंगे।”
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा कहना गलत होगा, असल में उन्होंने संपूर्ण मानवता को वैज्ञानिक सोच अपनाने, रूढ़ियों से मुक्त होने, अन्याय व अत्याचार खत्म करने, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने तथा न्यायपूर्ण समाज की स्थापना का संदेश दिया।
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